आँख मिचौली का खेल मैं खुद से खेलूं रे।
खुद से पूछूँ आ जाऊं ? फिर आजा बोलूं रे।
मन, मोबाइल, चश्मा मेरे बन गए साथी रे ।
इन अपने संगी साथी बिन, कैसे रहलूं रे ।
आंख मिचौली का खेल मैं खुद से खेलूं रे।
खुद से पूछूँ आ जाऊँ ? फिर आजा बोलूं रे ।
बोले चश्मा कहाँ छुपा मैं, ढूंढ ले मुझको रे ।
ढूँढू उसको इधर उधर फिर पा लिया बोलूं रे।
आंख मिचौली का खेल मैं खुद से खेलूं रे।
खुद से पूछुं आ जाऊं? फिर आजा बोलूं रे।
मोबाइल भी चुप छुप देखो , मुझे सताए रे।
कहां छुपा हूँ ढूंढो मुझको, धुन में गाए रे ।
आंख मिचौली का खेल मैं खुद से खेलूं रे ।
खुद से पूछुं आ जाऊँ ? फिर आजा बोलूं रे ।
इधर भी देखूं उधर भी देखूं, किधर है बोलूं रे।
तकिया – नीचे पा जाऊं फिर, पा गया बोलूं रे।
आँख मिचौली का खेल मैं खुद से खेलूँ रे ।
खुद से पूछुं आ जाऊं ? फिर आजा बोलूं रे। ✍️
Style is good
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Thank Reeta ji.
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सजीव चित्रण किया है ।lock down में इनका साथ बहुत महत्व रखता है ।अति सुन्दर वर्णन किया है ।
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Dr.दीपा जी सराहने में साथ देने के लिए शुक्रिया।
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जीवन भी तो एक खेल ही है जिसमें हम एक खिलाड़ी की तरह अपने अभ्यास और अनुभवों से सीख लेते हैं …और जो नहीं सीख पाता वो हार जाता है।
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आपकी भावों से सहमति बहुमूल्य है। धन्यवाद।
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बेहतरीन लेखन।👌👌
आँख मिचौली का खेल मैं खुद से खेलूं रे।
खुद से पूछूँ आ जाऊं ? फिर आजा बोलूं रे।
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एकाकीपन कभी कभी अपने बहुत पास ले आता है। पंक्तियां आपने सराही मुझे प्रेरणा मिली।🙏
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🙏🙏
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